वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2025 को लेकर देश में सियासी गर्मी तेज़ हो गई है। संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद यह विधेयक अब सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुँच चुका है। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इसके खिलाफ याचिका दायर कर दी है, जिसमें इसकी संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए गए हैं। इनके अनुसार, यह विधेयक संविधान के मूल ढांचे और अल्पसंख्यक अधिकारों का उल्लंघन करता है। AAP नेता अमानतुल्लाह खान भी इस विधेयक को कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी में हैं।
क्या अदालत बदल सकती है संसद का फैसला?
यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट संसद द्वारा पारित किसी कानून को खारिज कर सकती है। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब संवैधानिक चुनौतियों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने विधायी फैसलों को पलट दिया है। वक्फ बिल के मामले में भी अगर यह साबित होता है कि यह संविधान के मूल ढांचे, जैसे धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकों के अधिकार और न्याय के सिद्धांतों, का उल्लंघन करता है, तो इसे पलटे जाने की संभावना बन सकती है।

जब सुप्रीम कोर्ट ने संसद को रोका: ए.के. गोपालन केस की मिसाल
साल 1950 में आया ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य का फैसला एक ऐतिहासिक मोड़ था। इसमें निवारक निरोध कानून की वैधता को चुनौती दी गई थी और सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को सर्वोच्च मानते हुए कानून के कुछ हिस्सों पर प्रश्न उठाए। यह केस भारतीय न्याय प्रणाली में इस बात की बुनियाद बन गया कि संसद के बनाए कानून भी संविधान के ऊपर नहीं होते। यह ऐतिहासिक मिसाल वक्फ बिल विवाद में दायर याचिकाओं को एक वैचारिक बल देती है।
संशोधन बनाम संविधान: सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक भूमिका
भारत के न्यायिक इतिहास में ऐसे कई फैसले रहे हैं जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने संसद द्वारा किए गए संशोधनों को खारिज या सीमित किया है। शंकरी प्रसाद (1951) में जहाँ संसद को संशोधन का अधिकार मिला, वहीं गोलकनाथ (1967) और केशवानंद भारती (1973) जैसे मामलों ने संविधान की ‘मूल संरचना’ की अवधारणा को जन्म दिया, जिससे यह तय हुआ कि संसद भी कुछ सीमाओं के भीतर ही संशोधन कर सकती है। वक्फ संशोधन बिल को भी इसी कसौटी पर परखा जा रहा है। ऐसे मामलों से साफ है कि संवैधानिकता की समीक्षा सिर्फ संसद की शक्ति नहीं, सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी भी है।

अदालत की कसौटी पर वक्फ बिल: मिसालें हैं, चुनौती भी
इंदिरा नेहरू गांधी केस (1975) से लेकर इलेक्टोरल बॉन्ड केस (2024) तक सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार यह दिखाया है कि वह जरूरी होने पर संशोधनों को असंवैधानिक घोषित करने में पीछे नहीं हटती। वहीं, धारा 370 और CAA जैसे मामलों में अदालत ने भले ही हस्तक्षेप न किया हो, लेकिन उसने सुनवाई कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ज़िंदा रखा। ऐसे में, AIMIM और कांग्रेस नेताओं द्वारा दायर याचिकाएं वक्फ बिल के भविष्य को न्यायिक दृष्टिकोण से तय करेंगी। संविधान की आत्मा और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर यह एक बड़ा संवैधानिक परीक्षण बन सकता है।



