दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के नेतृत्व में बीजेपी सरकार ने केंद्र और उपराज्यपाल के साथ जारी टकराव को सुलझाने के लिए बड़ा कदम उठाया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चल रहे पांच अहम मामलों को वापस लेने का फैसला किया है। ये वही मामले हैं जिन पर आम आदमी पार्टी (AAP) की सरकार अक्सर अदालत का दरवाजा खटखटाती थी, आरोप लगाते हुए कि केंद्र और उपराज्यपाल दिल्ली के प्रशासन में अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहे हैं। इस फैसले को राजनीतिक माहौल को शांत करने की दिशा में बड़ा कदम माना जा रहा है।
विवादों से समझौते की ओर बढ़ता कदम
विवादित मामलों में प्रमुख रूप से DERC (दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन) अध्यक्ष विवाद, दिल्ली दंगों में वकीलों की नियुक्ति, विदेशों में शिक्षक प्रशिक्षण के मुद्दे पर उपराज्यपाल की राय, दिल्ली जल बोर्ड की फंडिंग, और यमुना प्रदूषण पर गठित उच्च स्तरीय समिति से जुड़े मामले शामिल हैं। इन मामलों को वापस लेकर दिल्ली सरकार ने यह संकेत दिया है कि वह टकराव के बजाय संवाद के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहती है।
सियासी माहौल में बदलाव की उम्मीद
रेखा गुप्ता के इस फैसले को दिल्ली के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव के संकेत के रूप में देखा जा रहा है। इससे जहां कोर्ट का बोझ हल्का होगा, वहीं दिल्लीवासियों के लिए सुशासन के मार्ग में बाधाएं भी कम होंगी। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इस फैसले से केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच रिश्तों में नई शुरुआत हो सकती है, जिससे विकास कार्यों में तेजी आने की संभावना है।

दिल्ली का विशेष संवैधानिक ढांचा
दिल्ली एक अद्वितीय प्रशासनिक ढांचे के तहत कार्य करती है, जहां इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा प्राप्त है, लेकिन इसमें एक निर्वाचित विधानसभा और मुख्यमंत्री भी होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 239AA के तहत दिल्ली को “राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र” (NCT) के रूप में स्थापित किया गया है, जिससे इसे सीमित स्वायत्तता प्राप्त होती है। इस विशेष स्थिति के कारण दिल्ली सरकार को राज्य सरकार जैसी शक्तियां नहीं मिलतीं, खासकर कानून-व्यवस्था, पुलिस और भूमि से जुड़े मामलों में। इस सीमित अधिकार के चलते अक्सर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है।
मुख्यमंत्री बनाम उपराज्यपाल: सत्ता संघर्ष
दिल्ली के शासन में मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर विवाद लंबे समय से चर्चा का विषय रहा है। दिल्ली सरकार का मानना है कि चुनी हुई सरकार को अधिक स्वायत्तता मिलनी चाहिए, ताकि वह जनता के हित में स्वतंत्र रूप से फैसले ले सके। दूसरी ओर, उपराज्यपाल केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं और संवैधानिक दायरे में रहकर केंद्र के अधिकारों की रक्षा करते हैं। इस संघर्ष का असर दिल्ली सरकार की योजनाओं और विकास कार्यों पर भी पड़ता है।
न्यायिक हस्तक्षेप और राजनीतिक विवाद
दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच टकराव कई बार अदालत तक पहुंचा है। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि दिल्ली सरकार को अपनी नीतियों के निर्माण में अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए, लेकिन पुलिस, भूमि और कानून-व्यवस्था पर केंद्र का नियंत्रण रहेगा। इस फैसले के बावजूद दिल्ली सरकार द्वारा कई बार आरोप लगाए गए कि केंद्र सरकार उसकी योजनाओं को लागू करने में बाधा डालती है। दिल्ली में शिक्षा, स्वास्थ्य और जल आपूर्ति जैसे मुद्दों पर भी यह टकराव साफ नजर आता है, जिससे प्रशासनिक जटिलताएं बढ़ती हैं।



